Monday, January 18, 2016

कलम की जुबानी, स्वप्न की कहानी

    बात सिर्फ एक सपने की लिखने जा रहा था लेकिन कलम हाथ में आते ही रुक गया और ना जाने बहुत देर तक कुछ सोचता रहा कि कहां से लिखना शुरू करूं, अपने इस स्वप्न को कैसे लिखूं, कई बार अपने पाठकों की पसंद ध्यान में आने लगी तो कई बार बड़े-बूढ़ों की सोच ध्यान में आने लगी कि घर का बड़ा बरगद के समान होता है। एक बार कलम ने बचपन से लिखने के लिए प्रेरित किया तो स्वप्न का कोई रिश्ता बचपन से जुड़ता दिखाई नहीं दिया। बहुत देर सोचने के बाद लगा कि जब कलम हाथ में आ ही गई है तो फिर वही लिखा जाए जो मन में विचार आ रहें हैं।

    बस फिर क्या था जो मन ने कहा मैं वो ही लिखता चला गया ... कहते हैं कि व्यक्ति जो दिन-भर सोचता रहता है उसके स्वप्न में भी वहीं बाते आती हैं। लेकिन मेरे इस स्वप्न में ऐसा कुछ भी नहीं था लेकिन इस स्वप्न ने मुझे रिश्तों को गहराई से समझने और दूसरों को समझाने में सहायता प्रदान की। काश मैनें भी जीवन को रिश्तों की कड़ी में जोड़कर जिया होता क्योंकि इस जिंदगी में लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ रिश्ते ही एहमियत रखतें हैं। सभी लोगों के लिए अपना शब्द जैसे पराया सा हो गया है। बचपन से लेकर अभी तक जीवन के इस सफर में मैंने रिश्तों को कोई एहमियत नहीं दी थी। मैनें सभी को अपना समझकर जीवन जिया और अभी भी जी रहा था। कहीं कोई विडंबना नहीं थी। कहीं कोई परेशानी नहीं आई। जीवन नदी के समान एक समान प्रवाह से विकास की दिशा में बहता जा रहा था।

    अचानक जीवन में एक झटका सा लगा कि जैसे एक नींद खुलने के बाद कोई अपना हमसे बहुत दूर चला गया है। और वो रिश्तों में बंधे कुछ लोग अपने पीछे छोड़ गया है। जो मेरे लिए पहले भी अपने थे और आज भी अपने हैं। लेकिन परिवार के सभी सदस्यों की सोच एक जैसी नहीं हो सकती। परिवार और समाज के कुछ लोग जो रिश्तों को एहमियत देते थे। उनके लिए दोस्त के जाने के बाद उसके माता-पिता से संबंध खत्म हुए। भाई के जाने के बाद उसके बच्चों से संबंध खत्म हुए। माता-पिता के लिए उनके बेटे का अपना परिवार भी पराया हुआ। सभी लोग एकाएक बात ही करते नजर आए कि जाने वाला तो बहुत अच्छा था, उसमें बुराई नाम की चीज थी ही नहीं।


    लेकिन मैं अपनी इस सोच को दोष दूं या भगवान के प्रति अपनी ईमानदारी समझूं कि मैं भाई की जीवन लीला समाप्त होने के बाद जीवने के दूसरे पहलू को भी सोच रहा था। जब मरने वाला बुरा नहीं तो फिर उसके साथ जीने वाले उसके परिवार के लोग कैसे बुरें हो सकते हैं। जैसे कि जब भगवान श्रीराम ने कोई बुरे काम नहीं किए तो उनके अपनों के साथ-साथ उनके अनुयायी भी बुरे नहीं हो सकते और अगर कोई बुराई होती भी है तो वो जीवन के रहते ही देखी जा सकती है क्योंकि मरने के बाद तो सभी लोग अच्छाईयों पर ही गौर करते हैं ना कि बुराईयों पर.....................     

Wednesday, February 2, 2011

कलयुगी सोच

कलयुगी सोच

भारत में आधुनिक युग में बढ़ते बलात्कार, हत्या, चोरी और सामाजिक पतन का कारण लोगों की सोच बदलना तो नहीं, यदि है तो इस बात पर लोगों को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। न जाने कितने ही विद्वानों ने इस तथ्य पर सैंकड़ों तर्क दिए हैं। विद्वानों द्वारा दिए गए तर्कों को प्रत्येक भारतीय भली-भाँती जानता है कि पिछले तीन युगों (सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग) के लोगों की सोच और कलयुग के लोगों की सोच में कितना बड़ा अंतर आ गया है। आधुनिक समाज के लोगों की बदली सोच समाज को प्रदूषित कर रही है या स्वच्छ। इस बात पर आपका बंधू भी एक तर्क प्रस्तुत कर रहा है, जो विद्वानों द्वारा दिए गए तर्कों को जरूर मजबूती प्रदान करेगा।

आधुनिक युग में बात चाहे किसी कार्यालय की हो, कालेज की या फिर समाज की। सभी जगहों पर लोगों की मानसिकता सिकुड़ती जा रही है। अगर कोई लड़का अपना ऊपर का बटन खोलकर चलता है तो ऑफिस में बड़े वर्ग के अधिकारी, कालेजों के प्रोफेसर्स और समाज को सुधारने वाले समाज-सुधारकों को उसकी मर्दानगी खटकने लगती है। और ये सभी उसको टोकने में कोई कसर नहीं छोड़ते। कोई उसको तमीज सिखाने की बात करता है तो कोई उसे नौकरी से निकालने की बात करता है। लेकिन समाज के इस तबके का इस और कोई ध्यान नहीं जाता कि आधुनिक युग में सभी मार्डन लड़कियां भारतीय सभ्यता के विपरीत कपड़े पहनती हैं। जब वे हॉफ बाजू और वी गले का सूट वो भी बिना दुपट्टे के पहन कर आती हैं तब उन्हे रोकने वाला कोई नहीं है । शरीर के वो अंग जो शादी के बाद सिर्फ उसके पति को देखने का हक है, उनके द्वारा ताड़-ताड़ कर देखे जाने से उनकी गरीमा को तार-तार किया जाता है। अगर ऐसा नहीं है तो कोई भी उनको क्यूं नहीं टोकता? जबकि उनके मुंख पर तो ओ माई गॉड, वॉट ए एक्सीलेंट, वॉउ ब्यूटीफुल और प्रिटि गर्ल जैसे कमेंट परोसी जाती हैं। क्या ये कमेंट भारतीय सभ्यता के अनुकूल हैं?

अंत में सबसे पहले तो मैं कलयुग के उन ऑफिस में बड़े वर्ग के अधिकारी, कालेजों के प्रोफेसर्स और समाज को सुधारने वाले समाज-सुधारकों से ये पूछना चाहता हूं कि जब आपको लड़के की मर्दानगी उसके बटन खोलने से दिख जाती है तो लड़की की अस्मत, आबरू और गरिमा उसके वी गले के सूट के बीच में देखने से दिखाई नहीं देती। और यदि दिखाई देती है तो आपके शर्म क्यूं नहीं आती? और यदि शर्म आती है तो फिर ऐसे कमेंट्स क्यूं? आप पुराने युगों की बात करें तो उस समय पर कोई लड़की किसी भी तरह के कपड़ो में बिना दुपट्टे के नहीं रह सकती थी। इसलिए उस समय के समाज के लोगों की सोच आज के लोगों की तरह सकुंचित नहीं थी। आधुनिक समाज इन लड़कियों की तारीफ करता है, बल्कि गत समाज की तरह सजा नहीं देता, उन पर रोक नहीं लगाता। धन्यवाद

Sunday, January 31, 2010

भारत मां को सप्रेम भेंट।

भारत मां को सप्रेम भेंट।

हिंदी.. हिंदी.. हिंदी..
हिंदी.. हैं हम वतन हैं हिंदुस्तां हमारा... हमारा।
सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा... हमारा।

काश ये पक्तियां बाला साहब ठाकरे व उनके समर्थकों ने भी उसी अर्थ भाव से पढ़ी होती जिस अर्थ भाव से प्रत्येक वो भारतीय पढ़ता है जो हिंदुस्तान को अपने किसी न किसी सहयोग से अन्य देशों की तुलना में कदम दर कदम आगे बढ़ाने की कोशिश में जुटा है न कि अकेली मुंबई को। अरे भाषा के नाम पर मराठी हुकुमत करने चले ठाकरे को अपने जहन में एक बात यह भी उतार लेनी चाहिए कि इस देश में अंग्रेजी भाषा के नाम पर अंग्रेजी हुकुमत करने वाले अंग्रेजों का अंत में क्या हश्र हुआ था। आखिर ठाकरे चाहते क्या हैं? क्यूं वो मराठी भाषा के नाम पर राजनीति कर रहे हैं? और यदि वो ऐसा पब्लिसिटी के लिए कर रहें हैं तो निश्चित ही वो चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसे शहीदों की चिताओं पर मेले नहीं कमेले लगाने जैसा काम कर रहें हैं। और वतन पर मिटने वालों का अब क्या बांकी निशा होगा यह भी ठाकरे का संकुचित दिमाग ही बता सकता है।

दिव्येन्दु सिहं तौमर,
साधना न्यूज मप्र, छग।

Sunday, December 20, 2009

सजीव और निर्जीव का दर्द

19 दिसबंर २००९ के दिन शाम की बात है। मैं साधना न्यूज मप्र-छग में कार्यरत, रात की पाली में काम कर रहा था। रात में काम करने की वजह से दिन में सोना जरुरी था। इसी के चलते जब शाम को मेरी आंखों की नींद खुली तो मैंने उठकर सबसे पहले मौसम के मिजाज का पता किया। रात की पाली में काम करने की वजह से मन कुछ-कुछ उदास तथा उखड़ा हुआ था। इसका मुख्य कारण यह भी था कि मेरे दो प्रिय दोस्त जितेंद्र जोशी व संदीप जैन घर पर मेरी आंखों से ओझल थे। जो मेरी इस उदासी व उखड़े हुए मन की अज्ञानी के चलते अपने-अपने काम से बाहर चले गये थे। मन की इसी उदासी ने आज मुझे जीवन की एक ऐसी सच्चाई से रूबरू करा दिया, जिसके लिए मैं इस उदासी को जीवन भर धन्यवाद देता रहूंगा।

जीवन के इस व्यवहारिक युग में सभी लोगों के साथ मैं भी एकमत हूँ कि संसार में सजीव और निर्जीव जीव-जंतु व वस्तुएं हैं। लेकिन इन दोनों की जीवंतता बताने के लिए एक लेखक के पास अपने अलग ही तर्क होतें हैं। एक ऐसा ही तर्क मैंने जीवन की इस सच्चाई से सीखा। वो तर्क है कि कौन कहता कि मनुष्य को जीवन प्रदान करने वाला आटा निर्जीव होता है। इसको सिद्ध कर दिखाया मेरे मन की उदासी ने। दोस्तों के बाहर चले जाने से शाम का खाना बनानें की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी। जिसके चलते सबसे पहले आटा गूंथकर मैंने रोटी बनाना पसंद किया। जब मैंने आटा गूंथने के लिए उसमें पानी डाला तो वह ठंड में बिल्कुल इस प्रकार एक दूसरे में सिमटने लगा जिसप्रकार ठंड लगने पर फुटपाथ पर सो रहा कोई व्यक्ति अपने अंगो को एक दूसरे में समेटता है।
दूसरे तर्क के लिए मैंने आटे को गूंथने के लिए जब घूंसो से मसलना शुरू किया तो वह ऐसी क्रिया कर रहा था जैसे कोई गूंगा व्यक्ति किसी बलवान की मार खाते समय बेबस कराह रहा हो। लेकिन विकृति की मार के चलते उसके मुख से तनिक भी आवाज नहीं निकल सकती। यहां पर तीसरा तर्क तो सबसे ही दर्दनाक है जिसको लिखते समय मैं खुद भी अपने आंखो के अश्रु भी नही रोक पा रहा हूँ। प्रकृति की मार झेल रहे इस आटे को गूंथने के बाद जब मैंने आग से लाल तवें पर सेकना शुरू किया तो इसमें कुछ ऐसी प्रतिक्रिया थी जैसी कसाई के पखवाड़े रखे हुए जीवित मुर्गे करतें हैं। व्याखायान के तौर पर मैं आपको वर्णन करके बताता हूँ लेकिन मेरे लिए यह वर्णन करना बड़ा ही कष्टदायी होगा।
जब कोई कसाई ग्राहक को गोश्त देने के लिए पखवाड़े से मुर्गा निकालने के लिए जब एक मुर्गे की गर्दन पकड़ लेता है उसके बाद भी मुर्गों में कटने के डर से पहले आप-पहले तुम को लेकर बड़ी उथल- पुथल होती है। ठीक उसी प्रकार आटे में से जब रोटी सेकने को लेकर मैंने पहली लोई पकड़कर निकाली तो आटे में भी आग में जलने को लेकर ठीक उसी प्रकार की प्रतिक्रिया मैंने देखी। आटे के इस दर्द को मैंने आज इस मन की उदासी में भांप लिया और उसके उस दर्द को पन्ने पर उकेर दिया।

दिव्येंदु सिंह तौमर..
साधना न्यूज मप्र-छग

Friday, June 12, 2009

पत्रकारिता एक चक्रव्यूह

अपने सभी पाठक गणों को दिव्येन्दु सिहं तौमर का नमस्कार। मान्यवर सभी पाठकगणों से मेरा अनुरोध है कि लेखनी में होने वाली त्रुटियों के लिए मुझे क्षमा करें । आज मै पत्रकारिता जैसे विशेष विषय पर लिखने जा रहा हूँ। पत्रकरिता एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसको व्यक्त कर पाना आज-कल के हम जैसे लेखकों या पत्रकारों के बस की बात नहीं है। आज इस क्षेत्र में काम करते हुए दो वर्ष होने जा रहें हैं लेकिन अभी तक भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस चक्रव्यूह में फंस जांऊ या नहीं, जहां अपने ही मृत्युपरांत के बाद अंतिम संस्कार में भी साथ नहीं देते, जैसा कि वरिष्ट पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी जी के साथ हुआ। उहोंने मालवा के इंदौर के लिए क्या कुछ नहीं किया लेकिन अंत क्या था यह किसी से नहीं छुपा। जब मुझे सुबह पता चला कि जोशी जी का हद्रयगति रुकने से निधन हो गया है तो मैं और मेरा प्रिय मित्र जितेंद्र जोशी दोनों हक्के-बक्के रह गये। उसके बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए मन को शांत रखकर दो मिनट का मौन रखने का प्रयास किया तो मन में एक अजीब उथल-पुथल चल रही थी कि अब जनसत्ता में उनके लेखों को नहीं पढ पाऊंगा। इस वाक्यां के बाद समझ नहीं आ रहा है कि इस क्षेत्र का ये कैसा चक्रव्यूह है?

Thursday, June 11, 2009

पत्रकारिता के कठिन रास्ते, बचपन से यौवन तक



बचपन में कलम के द्वारा कुछ लेखन एवं निबंध प्रतियोगताओं में ईनामों का संग्रह, मन में आने वाले दुख भरे विचारों को कागजों पर उतारना एवं सहानभूति प्राप्त करने के लिए दोस्तों के सामने उन विचारों को अपनी जुँबा से उकेरना ही मुझे पत्रकारिता में ढकेल देंगे ऐसा मुझे नहीं मालूम था। अगर मुझे मालूम होता तो ऐसा कभी नहीं करता क्योंकि इस पत्रकारिता रूपी समंदर को तैरकर पार करना आज के युग में कोई सामान्य बात नहीं रही। मेरे बचपन ने जब मुझे इस समंदर में ढकेला था तो मेरे मन में अपने बड़ों के दिये कुछ विचार जो आ रहे थे कि अगर तुम्हे कोई काम कम आता है तो उसे सीखने के लिए उसे बार-बार करो। बस फिर क्या था मैं भी खुशी-खुशी इस समंदर में कूद गया।

आज मेरी हालत यह है कि मुझे अपने उन बड़ों के विश्वास पर खरा उतरने के लिए पूरे जीवन इस बिना किनारें वाले समंदर में तैरना पड़ेगा। यह लेखनी मेरे जीवन की वास्तविक सच्चाई है और इसको लिखने का मेरा उद्देश्य उन युवाओं को इस क्षेत्र की कुंठा को बताना है जो इस क्षेत्र में विज्ञापनों को पढकर मीडिया कोर्सों में प्रवेश तो ले लेते हैं, लेकिन उसके बाद नौकरी पाने के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है। नौकरी मिलने के बाद इस क्षेत्र में बने रहने के लिए संघर्ष करते रहना बड़ा ही मुश्किल है।