Sunday, December 20, 2009

सजीव और निर्जीव का दर्द

19 दिसबंर २००९ के दिन शाम की बात है। मैं साधना न्यूज मप्र-छग में कार्यरत, रात की पाली में काम कर रहा था। रात में काम करने की वजह से दिन में सोना जरुरी था। इसी के चलते जब शाम को मेरी आंखों की नींद खुली तो मैंने उठकर सबसे पहले मौसम के मिजाज का पता किया। रात की पाली में काम करने की वजह से मन कुछ-कुछ उदास तथा उखड़ा हुआ था। इसका मुख्य कारण यह भी था कि मेरे दो प्रिय दोस्त जितेंद्र जोशी व संदीप जैन घर पर मेरी आंखों से ओझल थे। जो मेरी इस उदासी व उखड़े हुए मन की अज्ञानी के चलते अपने-अपने काम से बाहर चले गये थे। मन की इसी उदासी ने आज मुझे जीवन की एक ऐसी सच्चाई से रूबरू करा दिया, जिसके लिए मैं इस उदासी को जीवन भर धन्यवाद देता रहूंगा।

जीवन के इस व्यवहारिक युग में सभी लोगों के साथ मैं भी एकमत हूँ कि संसार में सजीव और निर्जीव जीव-जंतु व वस्तुएं हैं। लेकिन इन दोनों की जीवंतता बताने के लिए एक लेखक के पास अपने अलग ही तर्क होतें हैं। एक ऐसा ही तर्क मैंने जीवन की इस सच्चाई से सीखा। वो तर्क है कि कौन कहता कि मनुष्य को जीवन प्रदान करने वाला आटा निर्जीव होता है। इसको सिद्ध कर दिखाया मेरे मन की उदासी ने। दोस्तों के बाहर चले जाने से शाम का खाना बनानें की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी। जिसके चलते सबसे पहले आटा गूंथकर मैंने रोटी बनाना पसंद किया। जब मैंने आटा गूंथने के लिए उसमें पानी डाला तो वह ठंड में बिल्कुल इस प्रकार एक दूसरे में सिमटने लगा जिसप्रकार ठंड लगने पर फुटपाथ पर सो रहा कोई व्यक्ति अपने अंगो को एक दूसरे में समेटता है।
दूसरे तर्क के लिए मैंने आटे को गूंथने के लिए जब घूंसो से मसलना शुरू किया तो वह ऐसी क्रिया कर रहा था जैसे कोई गूंगा व्यक्ति किसी बलवान की मार खाते समय बेबस कराह रहा हो। लेकिन विकृति की मार के चलते उसके मुख से तनिक भी आवाज नहीं निकल सकती। यहां पर तीसरा तर्क तो सबसे ही दर्दनाक है जिसको लिखते समय मैं खुद भी अपने आंखो के अश्रु भी नही रोक पा रहा हूँ। प्रकृति की मार झेल रहे इस आटे को गूंथने के बाद जब मैंने आग से लाल तवें पर सेकना शुरू किया तो इसमें कुछ ऐसी प्रतिक्रिया थी जैसी कसाई के पखवाड़े रखे हुए जीवित मुर्गे करतें हैं। व्याखायान के तौर पर मैं आपको वर्णन करके बताता हूँ लेकिन मेरे लिए यह वर्णन करना बड़ा ही कष्टदायी होगा।
जब कोई कसाई ग्राहक को गोश्त देने के लिए पखवाड़े से मुर्गा निकालने के लिए जब एक मुर्गे की गर्दन पकड़ लेता है उसके बाद भी मुर्गों में कटने के डर से पहले आप-पहले तुम को लेकर बड़ी उथल- पुथल होती है। ठीक उसी प्रकार आटे में से जब रोटी सेकने को लेकर मैंने पहली लोई पकड़कर निकाली तो आटे में भी आग में जलने को लेकर ठीक उसी प्रकार की प्रतिक्रिया मैंने देखी। आटे के इस दर्द को मैंने आज इस मन की उदासी में भांप लिया और उसके उस दर्द को पन्ने पर उकेर दिया।

दिव्येंदु सिंह तौमर..
साधना न्यूज मप्र-छग

5 comments:

  1. अच्छी रचना बधाई। ब्लॉग जगत में स्वागत।

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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी टिप्पणियां दें

    कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
    वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
    डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
    इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना
    और उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये

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  3. बहुत ही सुंदर रचना है।
    ब्लाग जगत में द्वीपांतर परिवार आपका स्वागत करता है।
    pls visit...
    www.dweepanter.blogspot.com

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  4. dear..........cha gaya aap...........
    keep it upppppppppp .good...........

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  5. बहुत ही सुंदर तोमरजी सजीव और निर्जीव का खेल अच्छा लगा ...लगे रहो, कलम में दम है

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